नहीं रचेंगे स्वांग भइया 'हम तो चले हरिद्वार'

मंच पर उतरी बिम्ब के कलाकारों की गुदगुदाती प्रस्तुति
 
अखबारी विज्ञापन बना जी का जंजाल 
 
लखनऊ,उजाला सिटी। कौन जाने एक झूठ के पीछे कितने और झूठ बोलने पड़ें, कितने स्वांग रचने पड़ें! सीधे- साधे चन्द्रप्रकाश बाबू अंततः तौबा कर ही लेते हैं कि नहीं रचेंगे स्वांग भइया 'हम तो चले हरिद्वार।'
संस्कृति मंत्रालय नयी दिल्ली, संस्कृति निदेशालय उत्तर प्रदेश व भारतीय स्टेट बैंक के सहयोग से लेखक रामकिशोर नाग के लिखे ऐसे दृश्य और संवादों वाले हास्य नाटक का मंचन बिम्ब सांस्कृतिक समिति रंगमण्डल के कलाकारों ने आज शाम महर्षि कपूर के निर्देशन एवं दृश्य परिकल्पना में राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में कर दर्शकों को हंसाया। अखबार में  छपे एक विज्ञापन से शुरू हुआ नाटक झूठ से उपजी मुसीबतों में फंसने के बजाय हंसी हंसी में सच अपनाने का संदेश प्रेक्षकों को दे गया।
क्रियात्मक हास्यजन्य परिस्थितियों वाले नाटक की कहानी में अलग-अलग शहरों में नौकरी करने वाले बेटे-बहू रवि और ज्योति को बुजुर्ग चन्द्रप्रकाश का अखबार  में दिया विज्ञापन और पास आये कानूनी नोटिस की शर्तें सांसत में डाल देती हैं। इस हिसाब से अगर साल भर के भीतर वो दादा नहीं बने तो बेटे बहू को पांच करोड़ रुपये का हर्जाना भरना होगा।
नोटिस पाकर हकबकाए रवि और ज्योति चन्द्रप्रकाश बाबू को अपनी दिक्कतें बताने मिलने आते हैं, पर वे टस से मस नहीं होते। उनकी बच्चा न गोद लिया हो, न चुराया गया हो, न सेरोगेसी हो और न मांगा गया हो‌ जैसी ढेरों शर्तें रवि और ज्योति को उलझाती हैं तो पैदा हालात दर्शकों को गुदगुदाती हैं। दोनों अपने अपने ट्रांसफर के लिए आवेदन करते हैं और संयोगवश दोनों का स्थानान्तरण हो जाता है। वे फिर एक दूसरे के स्थान पर आ जाते हैं, यानी नतीजा वही ढाक के तीन पात, पहले जैसा। चंद्रप्रकाश बाबू के साथ रहकर एक ही शहर में नौकरी करने के लिये इस बार दोनों चन्द्रप्रकाश को लकवा मारे जाने के फर्जी चिकित्सा प्रमाण पत्र के सहारा लेकर साथ रहने में तो सफल हो जाते हैं। ऐसे में बहुत से लोग चन्द्रप्रकाश बाबू से मिलने आने लगते हैं।  रवि और ज्योति उनको इस बात के लिए तैयार कर लेते है, कि जब कोई उनको देखने आएगा तो वो लकवाग्रस्त मरीज का अभिनय करेगें। रोज रोज लोगों के देखने आने पर चन्द्रप्रकाश ऐसा करने से खीझ जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब रवि की बुआ यानी अपनी बहन के आने पर वो घबराकर लकवाग्रस्त होने की एक्टिंग से इन्कार कर देते हैं। बदली परिस्थितियों में 
मजबूरी में रवि और ज्योति फिर से एक और झूठी रिपोर्ट, जिसमें उनके माता-पिता और चन्द्रप्रकाश बाबू के दादा बनने की पुष्टि हो जाती है, का सहारा लेते हैं। पहले तो चन्द्रप्रकाश बाबू यह मानकर कि वास्तव में ऐसा है, खूब खुश होते हैं, पर यकायक उन्हें लगता है कि बेटे बहू तो नौकरी पर चले जाएंगे और बच्चे की परवरिश देखभाल सब उन्हें करना पड़ेगा.....तो उनके हौसले पस्त हो जाते हैं कि भइया ये हमसे न हो पायेगा, हम तो चले हरिद्वार!
प्रस्तुति में बुजुर्ग चन्द्रप्रकाश की भूमिका में गुरुदत्त पाण्डेय ने कुशलता से निबाही। बेटे रवि का चरित्र अभिषेक कुमार पाल और बहू ज्योति का किरदार इशिता वार्ष्णेय ने जिया। 
बुआजी- नीलम वार्ष्णेय
पहले बॉस- विवेक रंजन सिंह व दूसरे बॉस- अम्बुज अग्रवाल बनकर मंच पर उतरे। मंच पार्श्व के पक्षों में प्रकाश- तमाल बोस, 
संगीत- नियति नाग के संग मेकअप, मंचसज्जा, वेश  
आदि अन्य पक्षों में सरिता कपूर, सारिका श्रीवास्तव, लकी चौरसिया, अभिषेक पाल, नेहा चौरसिया, अनुकृति श्रीवास्तव, अक्षत श्रीवास्तव और आस्था श्रीवास्तव ने प्रतिभा दिखायी। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के तौर पर एमएलसी पवन सिंह चौहान ने कला समीक्षक राजवीर रतन को अंगवस्त्र व स्मृति चिह्न देकर योगदान के लिये सम्मानित भी किया।